Friday, 6 July 2018

हिमालय की रहस्यमय घाटी संगरीला



तिब्बत और अरुणांचल की सीमा स्थित संगरीला घाटी एक अदृश्य लोक हैं। उसे सामान्य आदमी न देख सकता है न उसमें प्रवेश कर सकता है। अध्यात्म के उच्च शिखर पर पहुंचे हुए महात्मा ही उस रहस्यमयी दुनिया में आवागमन करते हैं। कई लोग तो स्थाई रूप से वहीं रहकर साधना करते हैं। कभी कभार ही उनका हमारी दुनिया में आना होता है। कहते हैं कि वह घाटी चौथे आयाम से प्रभावित है। हमारी ज्ञानेंद्रियां तीन आयामों तक की ही अनुभूति कर सकती हैं। चौथे आयाम में तीसरे आयाम की चीजें अदृष्य हो जाती हैं। मान्यता यह भी है कि इस घाटी का सम्बन्ध अंतरिक्ष के किसी लोक से है।
यह घाटी भारत ही नहीं पूरे विश्व के अध्यात्म जगत का नियंत्रण और पथ प्रदर्शन करती है। जिस प्रकार वायु मंडल में बहुत से स्थान हैं जहां वायु शून्य रहती है। उसी तरह धरती पर कुछ ऐसे स्थान है जो धरती पर रहते हुए धरती से बाहर हैं। ऐसे वायु शून्यता वाले स्थान चौथे आयाम से प्रभावित होते हैं। ऐसे स्थान देश और काल से परे होते हैं। यदि उनमें कोई वस्तु या व्यक्ति अनजाने में चला जाय तो हमारे तीन आयाम वाले स्थूल जगत से उसका संबंध खत्म हो जाता है। वह वस्तु इस दुनिया से गायब हो जाती है।
बरमूडा ट्रैंगल भी समुद्र के बीच एक स्थान है जिसके प्रभाव क्षेत्र में आने पर पानी का जहाज या उसके ऊपर आकाश में उड़ता विमान अचानक गायब हो जाता है। वैज्ञानिकों ने आजतक उस रहस्य को सुलझाने में सफलता नहीं पाई है। वह स्थान भू हीनता और वायुशून्यता के क्षेत्र में आता है और चौथे आयाम से संबंधित है। इस विषय से सम्बंधित एक प्राचीन पुस्तक है-काल विज्ञान। यह तिब्बती भाषा में लिखी हुई है। यह पुस्तक तवांग मठ के पुस्तकालय में विद्यमान है। काल विज्ञान के अनुसार इस तीन आयाम वाली दुनिया की हर चीज़ देश,काल और निमित्त से बंधी हुई है। लेकिन संगरीला घाटी में काल नगण्य है। वहां प्राण,मन और विचार की शक्ति एक विशेष सीमा तक बढ़ जाती है। शारीरिक क्षमता और मानसिक चेतना बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। काल की नगण्यता के फलस्वरूप वहां आयु अति धीमी गति से बढ़ती है। यदि किसी व्यक्ति ने उसमें 20 वर्ष की उम्र में प्रवेश किया है तो वह लंबे समय तक उसी आयु में बना रहेगा। वहां का वातावरण स्वर्ग जैसा है। कहते हैं कि प्रसिद्द योगी श्यामा चरण लाहिड़ी के गुरु महाअवतार बाबा जिनकी उम्र 5 हजार साल बताई जाती है, जिन्होंने आदि शंकराचार्य और कबीर को दीक्षा दी थी, वे संगरीला घाटी के ही किसी सिद्ध आश्रम में निवास करते हैं। वे अमर हैं। कभी-कभी वे आकाश मार्ग से चल कर अपने शिष्यों को दर्शन भी देते हैं। उन्हें जब भी देखा गया है वे 25-26 वर्ष के युवा की तरह दिखे हैं।
कहते हैं कि संगरीला घाटी में तीन साधना केंद्र हैं। पहला-"ज्ञानगंज मठ", दूसरा-"सिद्ध विज्ञान आश्रम" और तीसरा है-" योग सिद्धाश्रम"। यहां पर दीर्घजीवी,कालंजयी योगी अपने आत्म शरीर से निवास करते हैं। सूक्ष्म शरीर से विचरण करते हैं और कभी कभार स्थूल शरीर भी धारण कर लेते हैं। स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस जो सूर्य विज्ञान में पारंगत थे ज्ञानगंज मठ से जुड़े हुए थे। संगरीला घाटी में रहने वाले योगी आचार्य गण संसार के योग्य शिष्यों को खोज खोज कर इस घाटी में लाते हैं और उन्हें दीक्षा देकर पारंगत बना कर फिर इसी संसार में ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए भेज देते हैं। इन तीनों आश्रमों के आलावा वहां तंत्र के भी अनेक केंद्र हैं जहाँ उच्च कोटि के कापालिक और शाक्त साधक निवास करते हैं। इसी प्रकार बौद्ध लामाओं के भी वहां मठ हैं। उनमें रहने वाले साधक स्थूल जगत के निवासियों से अपने को गुप्त रखे हुए हैं।
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कहते हैं कि संगरीला घाटी में न सूर्य का प्रकाश है और न चांद की चांदनी। वातावरण में एक दूधिया प्रकाश फैला हुआ है जिसके स्रोत का पता किसी को नहीं है। एक अनिर्वचनीय सुंदरता और शांति का साम्राज्य है वहां। यह सम्पूर्ण घाटी एक महान योगी की इच्छा शक्ति के वशीभूत है। वहां बहुत सी योग कन्याएं भी रहती हैं। वे सबक्ष्म शरीरधारी हैं लेकिन जब चाहें भौतिक शरीर शारण कर सकती हैं। अनेकानेक योगियों और तंत्र गुरुओं ने स घाटी का कहीं न कहीं उल्लेख किया है| ऐसी मान्यता है कि चीन ने संगरीला घाटी की खोज के लिए ही 1962 में भारत पर हमला किया था। माओ को अपनी आयु बढाने और चिरंजीवी होने की सनक थी और वह इस क्षेत्र पर कब्जा करके मृत्यु मुक्त होना चाहता था |
विवरण के अनुसार चीन को पता था की संगरीला घाटी सिद्ध लामाओं ,तांत्रिकों ,योगियों का केंद्र है | वे जो चाहते हैं वही होता है | इसीलिए वह बलात इसपर कब्जा करना चाहता था | उसकी सेना एक लामा का पीछा करते हुए भारत में घुसी थी| जिस क्षेत्र में उस लामा के गायब होने की आशंका थी वहां वहां चीन ने आक्रमण कर दिया क्योकि उसका मानना था की वह लामा इस क्षेत्र को जानता है | बहुत दिनों चीन की सेना ने इन क्षेत्रों के चप्पे चप्पे को छाना किन्तु यह उनकी दृष्टि में नहीं आया | उन क्षेत्रों पर आजतक उसने कब्जा जमाये रखा है | जब वहां यह क्षेत्र नहीं मिल रहा तो उसका संदेह है की सिक्किम अथवा अरुणांचल में यह क्षेत्र हो सकता है ,अतः गाहे बगाहे इन क्षेत्रों को अपना बताता रहता है |
संगरीला घाटी की अलौकिकता ही चीन को परेशान किये हुए है | यहां केवल भारत ,तिब्बत ,चीन ही नहीं पूरे विश्व के अलौकिक ऊर्जा संपन्न साधकों को मार्गदर्शन मिलता है ,चाहे वह किसी धर्म के हों |यहां अनेकानेक ऐसे साधक -योगी होते हैं जो हजारों हजार साल से साधना रत होते हैं | उन पर आयु का कोई प्रभाव नहीं होता | यह क्षेत्र मानसरोवर -कैलाश के आसपास है ,जिसे शिव का वासस्थान माना जाता है | किन्तु दृष्टव्य नहीं है | अलौकिक उर्जा से घिरा और अदृश्य है | दृष्टव्य क्षेत्र में स्वर्ग की सीढियां भी मिली हैं | महाभारत बाद इसी क्षेत्र में पांडव भी गए | संभव है उस क्षेत्र में ही गए हों | जो भी हो पर निर्विवाद रूप से यह क्षेत्र तो है जो हरेक उच्च स्तर के साधकों का मार्गदर्शक होता है और जिन्हें इस घाटी के सिद्ध स्वयं खोज लेते हैं |


Monday, 2 July 2018

साकार-निराकार की बहस बेमानी



देवेंद्र गौतम

अध्यात्म की दुनिया में इस बात को लेकर लंबे समय से बहस चलती आ रही है कि ब्रह्म साकार है अथवा निराकार। यह बहस सिर्फ विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच की नहीं है। इस सवाल पर हिंदू समुदाय भी विभाजित रहा है। उर्दू के प्रसिद्ध शायर मीर तकी मीर ने इस सवाल का जवाब मात्र एक शेर में दिया है। उनका शेर है-
इबादत की यां तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सबों की ख़ुदा कर चले।
इस शेर के जरिए उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि जब किसी साकार माध्यम पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तो वह चेतना को निराकार तक पहुंचा देता है। एक औसत चेतना के मनुष्य की चेतना को सीधे शून्य में केंद्रित नहीं किया जा सता।  निराकार ब्रह्म तक पहुंचने के लिए हमेशा एक माध्यम की जरूरत होती है। चाहे वह प्नत्यक्ष हो अथवा परोक्ष। निराकार ब्रह्म के उपासक परोक्ष माध्यम का इस्तेमाल करते हैं जबकि साकार ब्रहम के उपासक प्रत्यक्ष माध्यम का। मूर्ति पूजा प्रत्यक्ष माध्यम है। इसके मानने वाले अपने ईष्ट पर ध्यान केंद्रित करते हैं। लेकिन जबतक आंख खुली है तभी तक वह साकार रहता है। सिर्फ साकार में आस्था रखने वाले भी ईस्वर के प्रकट होने की बात करते हैं। प्रकट तो निराकार ही हो सकता है। साकार तो चसकर स्वयं आ सकता है उसके प्रकट होने का क्या मतलब।  किसी साकार वस्तु पर बहुत देर तक आंख गड़ाए रखने के बाद आंख बंद करने पर कुछ देर तक उसका  प्रतिबिंब दिखाई देता है वह प्रतिबिंब साकार नहीं निराकार होता है। इस तरह वह उपासना के जरिए साकार से निराकार की ओर अपनी चेतना को ले जाने का अभ्यास करता है। मुसलिम समुदाय के लोग दुनिया के जिस भी हिस्से में रहें, मक्का मदीना की ओर रुख करके नमाज अदा करते हैं। उस समय उनका ध्यान मक्का मदीना की ओर केंद्रित होता है। यानी वे मूर्ति पूजा का विरोध तो करते हैं, उसका मखौल तो उड़ाते हैं लेकिन स्वयं भी निराकार तक पहुंचने के लिए एक अप्रत्यक्ष माध्यम का इस्तेमाल करते हैं। मक्का मदीना उनके लिए अप्रत्यक्ष माध्यम का काम करता है। ईसाई लोगों के गिरिजाघरों में भी माता मरियम की मूर्ति और क्रास का चिन्ह होता है जो प्रार्थना के समय माध्यम का काम करता है। निराकार ब्रहम कण-कण में विराजमान बताया जाता है फिर उसकी उपासना के लिए किसी दिशा, किसी विशेष स्थान की अनिवार्यता क्यों। मुख्य चीज होती है चेतना को सूक्ष्मतम अवस्था तक ले जाना। निभिन्न धर्मों में इसके लिए अलग-्अलग तकनीक बताई गई है। लक्ष्य एक है उसकी प्राप्ति के  उपादान अलग हैं।  दुनिया में कोई समुदाय ऐसा नहीं है जिसमें इनसान सूक्ष्मतम चेतना के साथ जन्म लेते हों। सबकी चेतना को अतृप्त इच्छाएं और प्रतिकूल स्थितियां स्थूलता की ओर खींचती हैं जबकि आध्यात्मिक ज्ञान और साधना सूक्ष्मता की ओर। मनुष्य के साथ चाहे वह आस्तिक हो अथवा नास्तिक किसी न किसी रूप में आजीवन चेतना का यह संघर्ष चलता रहता है। लिहाजा साकार और  निराकार की बहस बेमानी है।

धर्मसत्ता बनाम राजसत्ता

देवेंद्र गौतम

हिंदू धर्म का कैनवास बहुत बड़ा है। लेकिन पता नहीं क्यों इस समुदाय की आबादी का अधिकांश हिस्सा सिर्फ भक्तियोग और कर्मकांड  को ही धर्म  मानता है। आपराधिक प्रवृत्ति के लंपट घर्मगुरुओं के पीछे भागता रहता है। हमेशा अपनी समस्याओं के निदान के लिए किसी अवतार की प्रतीक्षा करता रहता है।
हिंदू धर्म में मुख्य रूप से मोक्ष के तीन मार्ग बताए गए हैं। भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग। यह तीनों मार्ग दरअसल तीन शासन पद्धतियों के लिए आवश्यक नागरिक गुणों के विकास का मार्ग फ्रशस्त करते हैं।
भक्तियोग अपने ईष्ट के समक्ष पूरी तरह समर्पण कर देने की सीख देता है। अच्छा बुरा जो भी होता है उसकी मर्जी से होता है। हमारे कष्ट का निवारण वही करेगा।
यह एक तरह से परनिर्भरता को विकसित करता है। आत्मनिर्भरता को कम करता है। जो व्यक्ति अपने ईष्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करेगा वह राजा के समक्ष भी समर्पित रहेगा क्योंकि राजा के दैवी अधिकार की अवधारणा प्रचलित रही है। भक्तियोग वस्तुतः राजतंत्र की व्यवस्था के लिए अनुकूल नागरिक गुणों को विकसित करता है।
कर्मयोग फल की चिंता किए बिना कर्म करते जाने की सीख देता है। कर्म निष्फल हुआ तो भी अवसाद में जाने की जरूरत नहीं और फलदायी हुआ तो बहुत आह्लादित होने का काम नहीं। यह मार्ग साम्यवादी व्यवस्था के लिए आवश्यक गुणों को विकसित करता है। इस मार्ग का अनुसरण करने वाले आदर्श नागरिक होते हैं।
ज्ञानयोग हर विषय को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसने और उसके बाद ही उसे  स्वीकार अथवा अस्वीकार करने की तहरीक देता है। इस मार्ग पर चलनेवाला ही सही और गलत का निर्णय ले सकता है। वह अपने लिए सही रास्ता चुन सकता है। सही प्रतिनिधि, सही मार्गदर्शक का चयन कर सकता है। लोकतंत्र की व्यवस्था में इन्हीं गुणों की जरूरत पड़ती है। एक ज्ञानयोगी ही अपने जन प्रतिनिधि का सही ढंग से चयन कर सकता है।
हमारे देश के साथ त्रासदी यह रही कि आजादी के बाद व्यवस्था तो लोकतंत्र की लागू हुई लेकिन नागरिक गुणों के विकास का मनोवैज्ञानिक कारखाना राजतंत्र के जमाने का रह गया। आजाद भारत के राजनेताओं और धर्मगुरुओं ने भक्तियोग को ही बढ़ावा दिया। नतीजतन परिवारवाद और व्यक्ति पूजा का सिलसिला जारी रहा। लोग जाति और धर्म के नाम पर आपस में लड़ते रहे और इसी के प्रवाह में अपने जनप्रतिनिधियों का चयन करते रहे। अगर हमारे अंदर लोकतंत्र के अनुकूल नागरिक गुण होते तो संसदीय संस्थाओं में घोटालबाजों और बाहुबलियों का जमावड़ा नहीं होता। आज देश में मोदी भक्तों की एक जमात है जो यह मानने को तैयार ही नहीं कि उनसे कोई भूल हो सकती है। या उन्होंने जनता से कोई वादाखिलाफी की है। वे तटस्थ होकर व्यक्तित्व का विश्लेषण नहीं कर सकते। उनकी नज़र में  जो मोदी समर्थक नहीं वह राष्ट्रविरोधी और पाकिस्तान समर्थक है। यह मानसिक दीवालियापन नहीं तो क्या है। कोई व्यक्ति राष्ट्र और राष्ट्रवाद का प्रतीक नहीं हो सकता। दूसरी बात यह कि भक्त हमेशा ठगे जाते हैं। कभी धर्मगुरुओं के हाथों कभी राजनेताओं के हाथों। लोकतंत्र की व्यवस्था को भक्तों की नहीं ज्ञानयोगियों की दरकार है।
लेकिन धर्मगुरु और राजनेता हमेशा भक्तियोग को ही बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ इसी से सधता है। आसाराम और रामरहीम जैसे लोग अपने पीचे ज्ञानयोगियों की फौज कभी खड़ी नहीं कर सकते थे। धर्मस्थलों को लेकर विवाद, सांप्रदायिक तनाव भक्तियोग को ही बढ़ावा देने के उपादान हैं। राजनीतिक दल डंका बजाकर जातीय समीकरण और संप्रदायिक ध्रुवीकरण की नीति अपनाते हैं और उनके खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठाता। उनका भर्त्सना नहीं करता।
यह बात संभवतः हर किसी के गले नहीं उतरे लेकिन सच्चाई यही है कि हमारे देश में लोकतंत्र का प्रयोग विफल हो चुका है। हम उन नागरिक गुणों का विकास नहीं कर सके हैं जिनकी लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती के लिए दरकार है। हमें एक बार आत्ममंथन करने की जरूरत है और अपनी धार्मिक आस्था को धर्म के व्यापक फलक तक ले जाने की जरूरत है। आम हिंदू घरों में धार्मिक साहित्य के नाम पर रामचरित मानस, गीता और महाभारत जैसे ग्रंथ होते हैं। कुछ चालीसाएं होती हैं, कुछ आरती के संग्रह। वेद और उपनिषद गिने, चुने घरों में होते हैं। धर्मचर्चा के नाम पर भक्ति साहित्य से आगे बात नहीं बढ़ती। अपने धर्म के किसी एक हिस्से को देखकर धार्मिक कहलाना अपने आप को ठगना है। धर्म को समूल रूप से देखने और समझने की जरूरत है।

Sunday, 1 July 2018

पुनर्जन्म की अवधारणा का सच




देवेंद्र गौतम

हिन्दू मानते हैं कि आत्मा अमर है। वह शरीर बदलती है। उसका पुनर्जन्म होता है। बहुत सी घटनाओं ने स विश्वास की सच्चाई पर मुहर भी लगाई है। दूसरी तरफ ईसाई और मुसलमान इसे बकवास मानते हैं। उनके अनुसार कयामत के रोज कब्रों में दफ्न सभी मुरदे जीवित हो उठेंगे और उसी दिन उनके कर्मों का हिसाब होगा।
वास्तव में दोनो ही अपनी जगह सही हैं। इस विश्वास-अविश्वास का संबंध मृत्यु के बाद अपनाए जाने वाले संस्कार से है। योग और विज्ञान कहता है कि मनुष्य की चेतना के दो केंद्र होते हैं। एक सिर के पिछले हिस्से में जहां हिन्दू लोग टिक या चुटिया रखते हैं औग दूसरा रीढ़ की हड्डी में। कहते हैं कि जब शरीर की सारी कोसिकाएं मृत हो जाती हैं तो भी चेतना के ये दोनों केंद्र जागृत रहते हैं। हिन्दू समुदाय के लोग मृत्यु के बाद शवों का दाह्य संस्कार करते हैं। वे शरीर को अग्नि के हवाले करते हैं। उस समय कपाल क्रिया के जरिए और रीढ़ की हड्डी को तोड़कर चेतना के इन केंद्रों को शरीर से मुक्त कर देते हैं। मुसलिम और ईसाई समुदाय के लोग शवों को मिट्टी के हवाले करते हैं। उन्हें दफ्न कर देते हैं। जाहिर है कि स प्रक्रिया में चेतना के दोनों केंद्र जीवित रहते हैं और आत्मा शरीर के अंदर ही विराजमान रह जाती है। जब मानव चेतना ब्रह्मांडीय चेतना के संपर्क में आई ही नहीं तो पुनर्जन्म की संभावना कहां बनती है। इसीलिए उनकी परंपराओं को आकार देनेवाले मनीषियों ने पुनर्जन्म की अवधारणा को रद्द कर दिया। उनके मुताबिक कब्र के अंदर मृतक की चेतना सूक्ष्म अवस्था में और प्रखर होगी और प्रलय के वक्त जब प्राकृतिक उथल-पुथल से मुक्त होगी तो मजबूत अवस्था में होगी। दूसरी तरफ हिन्दुओं का मानना है कि मनुष्य एक जन्म के अधूरे कार्यों को दूसरे जन्म में पूरा करता है और जब सके सारे कार्य पूरे हो जाते हैं तो मोक्ष को प्राप्त करता है।