देवेंद्र गौतम
हिंदू धर्म का कैनवास बहुत बड़ा है। लेकिन पता नहीं क्यों इस समुदाय की आबादी का अधिकांश हिस्सा सिर्फ भक्तियोग और कर्मकांड को ही धर्म मानता है। आपराधिक प्रवृत्ति के लंपट घर्मगुरुओं के पीछे भागता रहता है। हमेशा अपनी समस्याओं के निदान के लिए किसी अवतार की प्रतीक्षा करता रहता है।
हिंदू धर्म में मुख्य रूप से मोक्ष के तीन मार्ग बताए गए हैं। भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग। यह तीनों मार्ग दरअसल तीन शासन पद्धतियों के लिए आवश्यक नागरिक गुणों के विकास का मार्ग फ्रशस्त करते हैं।
भक्तियोग अपने ईष्ट के समक्ष पूरी तरह समर्पण कर देने की सीख देता है। अच्छा बुरा जो भी होता है उसकी मर्जी से होता है। हमारे कष्ट का निवारण वही करेगा।
यह एक तरह से परनिर्भरता को विकसित करता है। आत्मनिर्भरता को कम करता है। जो व्यक्ति अपने ईष्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करेगा वह राजा के समक्ष भी समर्पित रहेगा क्योंकि राजा के दैवी अधिकार की अवधारणा प्रचलित रही है। भक्तियोग वस्तुतः राजतंत्र की व्यवस्था के लिए अनुकूल नागरिक गुणों को विकसित करता है।
कर्मयोग फल की चिंता किए बिना कर्म करते जाने की सीख देता है। कर्म निष्फल हुआ तो भी अवसाद में जाने की जरूरत नहीं और फलदायी हुआ तो बहुत आह्लादित होने का काम नहीं। यह मार्ग साम्यवादी व्यवस्था के लिए आवश्यक गुणों को विकसित करता है। इस मार्ग का अनुसरण करने वाले आदर्श नागरिक होते हैं।
ज्ञानयोग हर विषय को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसने और उसके बाद ही उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करने की तहरीक देता है। इस मार्ग पर चलनेवाला ही सही और गलत का निर्णय ले सकता है। वह अपने लिए सही रास्ता चुन सकता है। सही प्रतिनिधि, सही मार्गदर्शक का चयन कर सकता है। लोकतंत्र की व्यवस्था में इन्हीं गुणों की जरूरत पड़ती है। एक ज्ञानयोगी ही अपने जन प्रतिनिधि का सही ढंग से चयन कर सकता है।
हमारे देश के साथ त्रासदी यह रही कि आजादी के बाद व्यवस्था तो लोकतंत्र की लागू हुई लेकिन नागरिक गुणों के विकास का मनोवैज्ञानिक कारखाना राजतंत्र के जमाने का रह गया। आजाद भारत के राजनेताओं और धर्मगुरुओं ने भक्तियोग को ही बढ़ावा दिया। नतीजतन परिवारवाद और व्यक्ति पूजा का सिलसिला जारी रहा। लोग जाति और धर्म के नाम पर आपस में लड़ते रहे और इसी के प्रवाह में अपने जनप्रतिनिधियों का चयन करते रहे। अगर हमारे अंदर लोकतंत्र के अनुकूल नागरिक गुण होते तो संसदीय संस्थाओं में घोटालबाजों और बाहुबलियों का जमावड़ा नहीं होता। आज देश में मोदी भक्तों की एक जमात है जो यह मानने को तैयार ही नहीं कि उनसे कोई भूल हो सकती है। या उन्होंने जनता से कोई वादाखिलाफी की है। वे तटस्थ होकर व्यक्तित्व का विश्लेषण नहीं कर सकते। उनकी नज़र में जो मोदी समर्थक नहीं वह राष्ट्रविरोधी और पाकिस्तान समर्थक है। यह मानसिक दीवालियापन नहीं तो क्या है। कोई व्यक्ति राष्ट्र और राष्ट्रवाद का प्रतीक नहीं हो सकता। दूसरी बात यह कि भक्त हमेशा ठगे जाते हैं। कभी धर्मगुरुओं के हाथों कभी राजनेताओं के हाथों। लोकतंत्र की व्यवस्था को भक्तों की नहीं ज्ञानयोगियों की दरकार है।
लेकिन धर्मगुरु और राजनेता हमेशा भक्तियोग को ही बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ इसी से सधता है। आसाराम और रामरहीम जैसे लोग अपने पीचे ज्ञानयोगियों की फौज कभी खड़ी नहीं कर सकते थे। धर्मस्थलों को लेकर विवाद, सांप्रदायिक तनाव भक्तियोग को ही बढ़ावा देने के उपादान हैं। राजनीतिक दल डंका बजाकर जातीय समीकरण और संप्रदायिक ध्रुवीकरण की नीति अपनाते हैं और उनके खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठाता। उनका भर्त्सना नहीं करता।
यह बात संभवतः हर किसी के गले नहीं उतरे लेकिन सच्चाई यही है कि हमारे देश में लोकतंत्र का प्रयोग विफल हो चुका है। हम उन नागरिक गुणों का विकास नहीं कर सके हैं जिनकी लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती के लिए दरकार है। हमें एक बार आत्ममंथन करने की जरूरत है और अपनी धार्मिक आस्था को धर्म के व्यापक फलक तक ले जाने की जरूरत है। आम हिंदू घरों में धार्मिक साहित्य के नाम पर रामचरित मानस, गीता और महाभारत जैसे ग्रंथ होते हैं। कुछ चालीसाएं होती हैं, कुछ आरती के संग्रह। वेद और उपनिषद गिने, चुने घरों में होते हैं। धर्मचर्चा के नाम पर भक्ति साहित्य से आगे बात नहीं बढ़ती। अपने धर्म के किसी एक हिस्से को देखकर धार्मिक कहलाना अपने आप को ठगना है। धर्म को समूल रूप से देखने और समझने की जरूरत है।
हिंदू धर्म का कैनवास बहुत बड़ा है। लेकिन पता नहीं क्यों इस समुदाय की आबादी का अधिकांश हिस्सा सिर्फ भक्तियोग और कर्मकांड को ही धर्म मानता है। आपराधिक प्रवृत्ति के लंपट घर्मगुरुओं के पीछे भागता रहता है। हमेशा अपनी समस्याओं के निदान के लिए किसी अवतार की प्रतीक्षा करता रहता है।
हिंदू धर्म में मुख्य रूप से मोक्ष के तीन मार्ग बताए गए हैं। भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग। यह तीनों मार्ग दरअसल तीन शासन पद्धतियों के लिए आवश्यक नागरिक गुणों के विकास का मार्ग फ्रशस्त करते हैं।
भक्तियोग अपने ईष्ट के समक्ष पूरी तरह समर्पण कर देने की सीख देता है। अच्छा बुरा जो भी होता है उसकी मर्जी से होता है। हमारे कष्ट का निवारण वही करेगा।
यह एक तरह से परनिर्भरता को विकसित करता है। आत्मनिर्भरता को कम करता है। जो व्यक्ति अपने ईष्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करेगा वह राजा के समक्ष भी समर्पित रहेगा क्योंकि राजा के दैवी अधिकार की अवधारणा प्रचलित रही है। भक्तियोग वस्तुतः राजतंत्र की व्यवस्था के लिए अनुकूल नागरिक गुणों को विकसित करता है।
कर्मयोग फल की चिंता किए बिना कर्म करते जाने की सीख देता है। कर्म निष्फल हुआ तो भी अवसाद में जाने की जरूरत नहीं और फलदायी हुआ तो बहुत आह्लादित होने का काम नहीं। यह मार्ग साम्यवादी व्यवस्था के लिए आवश्यक गुणों को विकसित करता है। इस मार्ग का अनुसरण करने वाले आदर्श नागरिक होते हैं।
ज्ञानयोग हर विषय को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसने और उसके बाद ही उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करने की तहरीक देता है। इस मार्ग पर चलनेवाला ही सही और गलत का निर्णय ले सकता है। वह अपने लिए सही रास्ता चुन सकता है। सही प्रतिनिधि, सही मार्गदर्शक का चयन कर सकता है। लोकतंत्र की व्यवस्था में इन्हीं गुणों की जरूरत पड़ती है। एक ज्ञानयोगी ही अपने जन प्रतिनिधि का सही ढंग से चयन कर सकता है।
हमारे देश के साथ त्रासदी यह रही कि आजादी के बाद व्यवस्था तो लोकतंत्र की लागू हुई लेकिन नागरिक गुणों के विकास का मनोवैज्ञानिक कारखाना राजतंत्र के जमाने का रह गया। आजाद भारत के राजनेताओं और धर्मगुरुओं ने भक्तियोग को ही बढ़ावा दिया। नतीजतन परिवारवाद और व्यक्ति पूजा का सिलसिला जारी रहा। लोग जाति और धर्म के नाम पर आपस में लड़ते रहे और इसी के प्रवाह में अपने जनप्रतिनिधियों का चयन करते रहे। अगर हमारे अंदर लोकतंत्र के अनुकूल नागरिक गुण होते तो संसदीय संस्थाओं में घोटालबाजों और बाहुबलियों का जमावड़ा नहीं होता। आज देश में मोदी भक्तों की एक जमात है जो यह मानने को तैयार ही नहीं कि उनसे कोई भूल हो सकती है। या उन्होंने जनता से कोई वादाखिलाफी की है। वे तटस्थ होकर व्यक्तित्व का विश्लेषण नहीं कर सकते। उनकी नज़र में जो मोदी समर्थक नहीं वह राष्ट्रविरोधी और पाकिस्तान समर्थक है। यह मानसिक दीवालियापन नहीं तो क्या है। कोई व्यक्ति राष्ट्र और राष्ट्रवाद का प्रतीक नहीं हो सकता। दूसरी बात यह कि भक्त हमेशा ठगे जाते हैं। कभी धर्मगुरुओं के हाथों कभी राजनेताओं के हाथों। लोकतंत्र की व्यवस्था को भक्तों की नहीं ज्ञानयोगियों की दरकार है।
लेकिन धर्मगुरु और राजनेता हमेशा भक्तियोग को ही बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं क्योंकि उनका स्वार्थ इसी से सधता है। आसाराम और रामरहीम जैसे लोग अपने पीचे ज्ञानयोगियों की फौज कभी खड़ी नहीं कर सकते थे। धर्मस्थलों को लेकर विवाद, सांप्रदायिक तनाव भक्तियोग को ही बढ़ावा देने के उपादान हैं। राजनीतिक दल डंका बजाकर जातीय समीकरण और संप्रदायिक ध्रुवीकरण की नीति अपनाते हैं और उनके खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठाता। उनका भर्त्सना नहीं करता।
यह बात संभवतः हर किसी के गले नहीं उतरे लेकिन सच्चाई यही है कि हमारे देश में लोकतंत्र का प्रयोग विफल हो चुका है। हम उन नागरिक गुणों का विकास नहीं कर सके हैं जिनकी लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती के लिए दरकार है। हमें एक बार आत्ममंथन करने की जरूरत है और अपनी धार्मिक आस्था को धर्म के व्यापक फलक तक ले जाने की जरूरत है। आम हिंदू घरों में धार्मिक साहित्य के नाम पर रामचरित मानस, गीता और महाभारत जैसे ग्रंथ होते हैं। कुछ चालीसाएं होती हैं, कुछ आरती के संग्रह। वेद और उपनिषद गिने, चुने घरों में होते हैं। धर्मचर्चा के नाम पर भक्ति साहित्य से आगे बात नहीं बढ़ती। अपने धर्म के किसी एक हिस्से को देखकर धार्मिक कहलाना अपने आप को ठगना है। धर्म को समूल रूप से देखने और समझने की जरूरत है।
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