देवेंद्र गौतम
हिन्दू मानते हैं कि आत्मा अमर है। वह शरीर बदलती है। उसका पुनर्जन्म
होता है। बहुत सी घटनाओं ने स विश्वास की सच्चाई पर मुहर भी लगाई है। दूसरी तरफ
ईसाई और मुसलमान इसे बकवास मानते हैं। उनके अनुसार कयामत के रोज कब्रों में दफ्न
सभी मुरदे जीवित हो उठेंगे और उसी दिन उनके कर्मों का हिसाब होगा।
वास्तव में दोनो ही अपनी जगह सही हैं। इस विश्वास-अविश्वास का संबंध
मृत्यु के बाद अपनाए जाने वाले संस्कार से है। योग और विज्ञान कहता है कि मनुष्य
की चेतना के दो केंद्र होते हैं। एक सिर के पिछले हिस्से में जहां हिन्दू लोग टिक या
चुटिया रखते हैं औग दूसरा रीढ़ की हड्डी में। कहते हैं कि जब शरीर की सारी
कोसिकाएं मृत हो जाती हैं तो भी चेतना के ये दोनों केंद्र जागृत रहते हैं। हिन्दू
समुदाय के लोग मृत्यु के बाद शवों का दाह्य संस्कार करते हैं। वे शरीर को अग्नि के
हवाले करते हैं। उस समय कपाल क्रिया के जरिए और रीढ़ की हड्डी को तोड़कर चेतना के
इन केंद्रों को शरीर से मुक्त कर देते हैं। मुसलिम और ईसाई समुदाय के लोग शवों को
मिट्टी के हवाले करते हैं। उन्हें दफ्न कर देते हैं। जाहिर है कि स प्रक्रिया में
चेतना के दोनों केंद्र जीवित रहते हैं और आत्मा शरीर के अंदर ही विराजमान रह जाती
है। जब मानव चेतना ब्रह्मांडीय चेतना के संपर्क में आई ही नहीं तो पुनर्जन्म की
संभावना कहां बनती है। इसीलिए उनकी परंपराओं को आकार देनेवाले मनीषियों ने
पुनर्जन्म की अवधारणा को रद्द कर दिया। उनके मुताबिक कब्र के अंदर मृतक की चेतना
सूक्ष्म अवस्था में और प्रखर होगी और प्रलय के वक्त जब प्राकृतिक उथल-पुथल से
मुक्त होगी तो मजबूत अवस्था में होगी। दूसरी तरफ हिन्दुओं का मानना है कि मनुष्य
एक जन्म के अधूरे कार्यों को दूसरे जन्म में पूरा करता है और जब सके सारे कार्य
पूरे हो जाते हैं तो मोक्ष को प्राप्त करता है।
हिंदी ब्लॉग-जगत में आप का स्वागत है......आलेख के लिए बधाई...
ReplyDeleteधन्यवाद चतुर्वेदी जी
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